सेवागाथा – माटी भी बनी अनमोल, दधीचि देहदान समिति

रश्मि दाधीच

जब माटी में माटी मिली, उस माटी का क्या मोल?
जो मरकर भी जीवन दे जाए वो माटी है अनमोल.

घर के बाहर खड़ी शववाहिनी व आंगन में मृत पति की देह! वर्षों पहले किये गये संकल्प को पूरा करने का इंतजार कर रही थी. दूसरी ओर नादान बच्चों के स्वर अपनी मां के विद्रोह में बुलन्द हो रहे थे – हम माटी के साथ कोई छेड़छाड़ नहीं होने देंगे, यह तरीका गलत है, हम अंत्येष्टि पूर्ण करेंगे. तभी पत्नी के भीतर हिलोरे लेती संवेदनाओं ने चुप्पी तोड़ी, बस एक वाक्य और सभी के अधरों पर मौन पसर गया. “देहदान का संकल्प मेरे पति ने लिया है और इसके बीच, मैं किसी को भी नहीं आने दूंगी”.
दधीचि देहदान समिति की ओर से अपने कर्तव्य निभाने गए समिति के संयुक्त महासचिव डॉ. विशाल चड्ढा जी बताते हैं – ऐसे भावुक क्षणों में अपने पति के साथ लिए गए संकल्प को निभाने के लिए एक पत्नी अपने ही बच्चों के खिलाफ खड़ी हो गयी. यह भाव वैश्विक नहीं आध्यात्मिक है और ऐसे अनेक संस्मरण हैं जो इस दधीचि परिवार से जुड़े हैं. यह सत्य घटना संपूर्ण जीत कौर एवं उनके पति स्वर्गीय डॉक्टर साहब की है.
देहदान का संकल्प जीवन के बाद भी जीने की एक अनोखी यात्रा है, व इस संकल्प को करवाने वाले भी खुद इस यात्रा के सहभागी हैं. इस पुनीत कार्य को एक व्यवस्थित स्वरूप देने के लिए 11 अक्तूबर, 1997 में महर्षि दधीचि से प्रेरणा लेकर दधीचि देहदान/अंगदान समिति का गठन हुआ, ‌जिसका पहला देहदान संकल्प पत्र राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के यशस्वी प्रचारक स्वर्गीय नानाजी देशमुख ने स्वयं भरा. समिति दिल्ली एन.सी.आर., बुलंदशहर सहित करीब 9 जिलों में काम कर रही है‌. लगभग 300 कार्यकर्ताओं के अथक परिश्रम का ही नतीजा है कि पिछले 13 वर्षों में लगभग 1300 लोगों के अलग-अलग अंग मृत्यु के बाद भी किसी अन्य के शरीर में जीवित हैं. इनमें 375 लोगों की संपूर्ण देह व 925 से अधिक नेत्रदान हो चुके हैं. 18000 से ज्यादा संकल्प पत्र (फार्म) भरवाने का कार्य समिति के स्वयंसेवकों ने किया है.
इतना ही नहीं दधीचि देहदान समिति के कार्य से प्रेरणा लेकर देश भर में 46 अन्य समितियां स्वतंत्र रूप से कार्य कर रही हैं, जिनका मार्गदर्शन व नेतृत्व दधीचि देहदान के संस्थापक, संरक्षक एवं विश्व हिन्दू परिषद के वर्तमान कार्याध्यक्ष आलोक जी स्वयं कर रहे हैं.
आखिर देहदान का विचार आया कहां से..?? इस प्रश्न का उत्तर देते हुए आलोक जी बताते हैं – एक बार अमृतसर के गवर्नमेंट मेडिकल कॉलेज में प्रोफेसर डॉ. हुकम सिंह विर्क (पूर्व विभागाध्यक्ष – एनॉटोमी) का स्केल्टन देखकर पता चला कि उन्होंने मरणोपरांत अपना शरीर यह कहकर दान कर दिया कि-“मैंने जीवन भर दूसरों की देह पर अपने बच्चों को पढ़ाई करवाई है और मैं चाहता हूं कि मेरे मरने के बाद मेरे कॉलेज के बच्चे मेरी देह पर अपनी पढ़ाई का कार्य जारी रखें”. मेडिकल के सभी आयुर्वेदिक, होम्योपैथिक एवं एलोपैथिक क्षेत्र में जहां एक शरीर पर 4 से 5 विद्यार्थियों को अध्ययन करना चाहिए वहां मजबूरन 40 से 50 विद्यार्थी अध्ययन कर रहे हैं. आलोक जी बताते हैं – उसी समय ह्रदय में मंथन प्रारंभ हो गया और 1995 में अपने 7 मित्रों के साथ उन्होंने देहदान का वसीयत पत्र रजिस्टर्ड करवाया और 1997 में दधीचि देहदान समिति का गठन हुआ.
समिति की उपाध्यक्षा मंजू प्रभा जी बताती हैं कि आरंभ में देहदान करवाने में बहुत अड़चनें आईं, कभी गाड़ी नहीं, कभी ड्राइवर नहीं, कभी परिवार समझने में देर लगा रहा है, कभी किसी कॉलेज का फोन नहीं उठा, कभी उठा तो उनके पास शव रखने को टब नहीं है. लगभग तीन-चार साल के अथक प्रयास से अब स्थिति यह बनी कि 24×7 दिल्ली के किसी भी सरकारी मेडिकल कॉलेज में देहदान की व्यवस्था सुचारू रूप से शुरु हो गई. एन.सी.आर. में खुलने वाले कॉलेजों के लिए पार्थिव शरीर की मांग भी अब पूरी होने लगी है.

देहदान संकल्प एक ओर आपकी आध्यात्मिक चेतना को जागृत करता है कि आप यह शरीर नहीं, स्वयं आत्मा हो और यह शरीर इस संसार की यात्रा के लिए बस एक साधन मात्र है, तो वहीं दूसरी ओर इसी देह को स्वस्थ, सबल और सुदृढ़ बनाने की भी प्रेरणा देता है, क्योंकि एक अच्छी देह के अंग ही जन कल्याण में उपयोगी होंगे. आखिरी पड़ाव में सांसों के मोती गिनते उस व्यक्ति के लिए इससे ज्यादा संतोषजनक बात क्या होगी कि उसकी बेजान माटी भी किसी के नीरस, हारे हुए और थके हुए जीवन में नई उम्मीद, नई रोशनी, और नया जीवन भर देगी. यह बातें लिखना, कहना, जितना सरल है.. समय पर इस कार्य को नियोजित ढंग से करना उतना ही कठिन हो जाता है.
फिर भी नोएडा के एक स्वयंसेवक परिवार में जब पूरी कोशिश के बाद भी मात्र 7 दिन के नवजात शिशु को डॉक्टर बचा नहीं पाए तो उनके परिवार ने उस शिशु के कुछ पल के जीवन को भी एक उद्देश्य दिया और दधीचि देहदान समिति का वह सबसे छोटा डोनर बना.
समिति के अध्यक्ष हर्षदीप मल्होत्रा बताते हैं कि 10 नवंबर, 2017 में राष्ट्रपति भवन में आयोजित दधीचि देहदान समिति के कार्यक्रम में मुख्य अतिथि राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद जी ने नवजात शिशु के पिता सूरज गुप्ता जी को अपने पास बिठाया और सभी देहदान संकल्प पूरा करने वाले परिवारों का अभिनंदन किया..”
वर्ष भर में ऐसे अनेक कार्यक्रम होते हैं, जहां संकल्प पत्र भरने वाले दधीचि परिवार के सभी सदस्यों का सम्मान किया जाता है, व उन सभी परिवारों के प्रति कृतज्ञता के भाव प्रकट किए जाते हैं. जिनके संकल्प पूरे हुए हैं, तथा अंगदान से जिन्हें नया जीवन मिला है. उनके अनुभव सुनना अन्य लोगों में भी प्रेरणा का संचार करता है.
इसे ऐसे समझें, पंजाब केसरी की डायरेक्टर किरण चोपड़ा ने जब हार्ट ट्रांसप्लांट के बाद सामान्य जीवन जी रही प्रीति उन्हाले के अनुभव सुने, तो उसी कार्यक्रम में अपनी देहदान का संकल्प ले संकल्प पत्र भी भर दिया.
सभी दान मरणोपरांत ही हों यह आवश्यक नहीं, कुछ दान ऐसे भी हैं जैसे रक्तदान, केशदान आदि हम आसानी से कर सकते हैं. परिवारों में देहदान के संस्कार देखकर हमारी नई पीढ़ी भी दान के लिए प्रेरित हो रही है. स्कूल की छात्राएं मीरा, श्रेया और एंजिल ने कैंसर पीड़ित कीमोथेरेपी से गुजर रही महिलाओं के लिए अपने केशदान कर युवाओं में सेवा और त्याग के भाव को जागृत करने का प्रयास किया है.
समिति के अध्यक्ष हर्षदीप बताते हैं कि दान के इच्छुक परिवार को समिति को बस एक कॉल करना होता है, उसके बाद संकल्प पूरा होने तक सभी व्यवस्थाएं और समन्वय दिन-रात निःस्वार्थ भाव से लगे 300 स्वयंसेवक स्वयं करते हैं. यही कारण है कि दानदाता और प्राप्तकर्ता दोनों ही दधीचि कुटुंब का हिस्सा बनते हैं और देहदान, अंगदान की प्रेरणा समाज में जागृत करते हैं. समिति द्वारा महर्षि दधीचि की कथा एवं नैमिषारण्य तीर्थ यात्राएं आज समाज में देहदान के प्रति जागरूक करने का कार्य कर रही हैं.

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