पू. सरसंघचालक जी और पूर्व राष्ट्रपति डॉ. प्रणव मुखर्जी का संबोधन
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पटना, प्रतिवर्ष नागपुर में तृतीय वर्ष का वर्ग लगता है और प्रतिवर्ष उसका समापन समारोह होता है। ऐसे जो हमारे कार्यक्रम होते हैं उसमें संघ स्थापना के समय से ही हमारी ये परंपरा रही है कि देश के सज्जनों को हम आमंत्रित करते हैं। जिनको आना संम्भव है वो हमारा निमंत्रण स्वीकार करते हैं और यहाँ पर आते हैं। संघ का स्वरूप देखते हैं, अपनी तरफ से अपनी कुछ बात कहते है। उसको पाथेय रूप में स्वीकार कर उसका चिंतन करते हुए हम आगे बढ़ते है। उस परंपरा के अनुसार ही आज का कार्यक्रम भी सरलता से, सहजरीति से संपन्न हो रहा है। परन्तु इस बार उसकी कुछ विशेष चर्चा चली। वास्तव में एक स्वाभाविक नित्यक्रम में होने वाला ये प्रसंग है। उसके पक्ष में और विपक्ष में जो चर्चा होती है, उसका कोई अर्थ नहीं है। ये प्रतिवर्ष जैसे होता है,वैसे ही हुआ है।
डॉ. प्रणब मुखर्जी साहब से हम परिचित हुए, सारा देश पहले से ही जानता है। अत्यंत ज्ञान समृद्ध, अनुभव समृद्ध ऐसा एक आदरणीय व्यक्तित्व हमारे पास है और ऐसे सज्जनों से पाथेय ग्रहण करने का लाभ हमें मिल रहा है, इसके लिए उनके हम कृतज्ञ हैं। हमने सहज रूप से उनको आमंत्रण दिया, उन्होंने हमारे हृदय का स्नेह पहचानकर सम्मति दी और यहां उपस्थित हैं। एक सहज स्वाभाविक बात है। उनको कैसे बुलाया और वो क्यों जा रहे हैं? ये चर्चा निरर्थक है। संघ, संघ है और डॉ. प्रणब मुखर्जी, डॉ. प्रणब मुखर्जी हैं और रहेंगे। परन्तु हम निमंत्रण इसलिए देते हैं कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नाते, संघ वाले नाम से देश में कोई बड़ा प्रभावी ग्रुप खड़ा करें, जो देश के सारे क्रिया-कलापों पर अपना स्वामित्व चलाए, इस आकांक्षा को लेकर संघ का काम नहीं चला है। हिन्दू समाज में एक अलग प्रभावी संगठन खड़ा करने के लिए संघ नहीं हैं। संघ तो सम्पूर्ण समाज को संगठित करना चाहता है। इसलिए हमारे लिए कोई पराया नहीं है और वास्तव में किसी भारतवासी के लिए दूसरा कोई भारतवासी पराया नहीं है। विविधता में एकता ये अपने देश कीहजारों वर्षों से परंपरा रही है। हम भारतवासी हैं यानि क्या हैं? संयोग से इस धरती पर जन्मे या यहाँ पैदा हुए, इसलिए हम केवल भारतवासी नहीं है। ये केवल नागरिकता की बात नहीं है। भारत की धरती पर जन्मा प्रत्येक व्यक्ति भारतपुत्र है। इस मातृभूमि की निशिम भाव से भक्ति करना, उसका काम है। और जैसे-जैसे उसको समझ में आता है, छोटे तरीके से, बड़े तरीके से सभी लोग ऐसा करते हैं। इस भारत भूमि ने केवल हमको पोषण और आजीविका के लिए प्राकृतिक संसाधन नहीं दिए हैं। उसने हमको हमारा स्वभाव भी दिया है।सुजल, सुफल, मलयज, शीतल मातृभूमि और चारों ओर से प्राकृतिक दृष्टि से सुरक्षित इसमें बाहर के लोगों का आना-जाना बहुत कम हो सकता था और अन्दर भरपूर स्मृद्धि थी।इसलिए जीवन जीने के लिए हमको किसी से लड़ना नहीं पड़ा। स्वाभाविक दृष्टि से हम उस मनोवृति के बने कि सर्वत्र भरपूर है, हम उसका उपभोग कर रहे हैं, अपने जीवन कोसमृद्ध कर रहे हैं। कोई आता है तो ठीक है, तुम भी आ जाओ, तुम भी साथ रहो। भाषाओं की, पंथ-सम्प्रदायों की विविधता तो पहले से है। अलग-अलग प्रकार से प्रान्त बनते हैं,रचनाएं बदलती रहती है। राजनीतिक विचार प्रवाह, मत प्रणालियां भी पहले से रही है। लेकिन इस विविधता में हम सब भारत माता के पुत्र हैं और अपने-अपने विविधता वैशिष्ट्यपर पक्का रहते हुए, दूसरों की विविधताओं का सम्मान करते हुए, स्वागत करते हुए और उनके अपने विविधता पर रहने का स्वीकार करते हुए मिलजुल कर रहना। विविधता में जो अंतर्निहित एकता है, भारत के उत्थान के लिए परिश्रम करने वाले सभी प्रामाणिक बुद्धि के निस्वार्थ महापुरुषों ने अभी तक जिसका उल्लेख करना कभी छोड़ा नहीं, ऐसी उस अंतर्निहित एकता का साक्षात्कार करके अपने जीवन में रहना, ये हमारी संस्कृति बनी और उसी संस्कृति के अनुसार इस देश में जीवन बने और सारे विश्व के भेद और स्वार्थ मिटाकर, विश्व के कलह मिटाकर, सुख-शांतिपूर्वक संतुलित जीवन देने वाला प्राकृतिक धर्म उसको दिया जाए, इस प्रयोजन से इस राष्ट्र को अनेक महापुरुषों ने खड़ा किया। अपने प्राणों की बलि देकर सुरक्षित रखा। अपने पसीने से सींचकर बड़ा किया। उन सभी महापुरुषों के हमारे पूर्वज होने के कारण गौरव का स्थान अपने हृदय में हम रखते हैं और उनके आदर्शों का अनुसरण करने का अपने-अपने हिसाब से प्रयास करते हैं। मत-मतान्तर हो ही जाते हैं। मत का प्रतिपादन का शास्त्रार्थ करते समय और विवाद भी करने पड़ते है। लेकिन इन सब बातों की एक मर्यादा रहती है। अंततोगत्वा हम सब लोग भारत माता के पुत्र हैं। मत-मतान्तर कुछ भी होंगे, हम अपने-अपने मत के द्वारा ये मान कर चल रहे हैकि भारत का भाग्य हम बदल देंगे, हम उसको परम वैभव संपन्न बनायेंगे. एक ही गन्तव्य के लिए अलग-अलग रास्ते लेने वाले लोगों को अपनी विशिष्टता, विविधता को लेकर तोचलना चाहिए, उससे हमारा जन जीवन समृद्ध होता है। विविधता होना सुन्दरता की बात है, स्मृद्धि की बात है. उसको स्वीकार करके तो हम चलते ही है, परन्तु ये दिखने वाली विविधता एक ही एकता से उपजी है। उस भाव का भान रखकर हम सब एक हैं, इसका भी दर्शन समय-समय पर होते रहना चाहिए। क्योंकि किसी राष्ट्र का भाग्य बनाने वाले समूह नहीं होते, व्यक्ति नहीं होते, विचार तत्वज्ञान नहीं होता, सरकारें नहीं होती। सरकारें बहुत कुछ कर सकती है लेकिन सरकारें सब कुछ नहीं कर सकती हैं। देश का सामान्य समाज जब तक गुणसंपन्न बनकर अपने अन्तःकरण से भेदों को तिलांजली देकर, मन के सारे स्वार्थ हटाकर, देश के लिए पुरुषार्थ करने के लिए तैयार होता है, तब सारी सरकारें, सारे नेता,सारे विचार समूह उस अभियान के सहायक बनते हैं और तब देश का भाग्य बदलता है। स्वतंत्रता से पहले अपने देश के लिए स्वतंत्रता का प्रयत्न करने वाले सभी विचारधाराओं के महापुरुषों के मन में ये चिंता थी कि हम तो प्रयास कर रहे है, हमारे उपाय से कुछ तो भला होगा लेकिन सदा के लिए बीमारी खत्म नहीं होगी। जब तक अपने सामान्य समाज को एकविशिष्ट गुणवत्ता के स्तर पर मन की एकात्मता की भावना के आधार पर खड़ा नहीं किया जाता तब तक देश के दुर्दिनों का सम्पूर्ण अंत नहीं होगा। और हमने अपना काम चुन लिया है, हम उसमें व्यस्त हैं, लेकिन ये काम हुए बिना कोई काम पूर्ण नहीं होता।

चार ही प्रकार भारतवर्ष में हैं, पराया कोई नहीं है, दुशमन कोई नहीं है। सबकी माता भारत माता है। 40 हजार वर्षों से सबके पूर्वज समान हैं, ऐसा डीएनए का विज्ञान आज कहता है। सबके जीवन के ऊपर भारतीय संस्कृति के प्रभाव स्पष्ट रूप से देखने को मिलते हैं सर्वत्र। इस सत्य को हम स्वीकार करें, समझ लें। अपने संकुचित भेद छोड़कर, सबकी विविधताओं का सम्मान करते हुए, इस देश की राष्ट्रीयता के, इस सनातन प्राचीन प्रवाह को बल देने वाला काम करते जाएं। संघ ने यही विचार किया है. संघ सबको जोड़ने वाला संगठन है। समाज में संगठन संघ को नहीं करना है, समाज का ही संगठन संघ को करना है। क्योंकि संगठिन समाज ही भाग्य परिवर्तन की पूंजी है। और इस भाषण को समझकर, ऐसी पुस्तकों को पढ़कर, संगठन होता नहीं क्योंकि संगठन में एक विशिष्ट व्यवहार अपेक्षित है। सौहार्द का, सौमनस्य का, सबको समझ लेने का। आज की भाषा में अंग्रेजी में कहते हैं डेमोक्रेटिक माइंड, उसके बिना सम्भव नहीं होता है। और व्यवहार की बात स्वभाव से सम्बन्धित रहती है और स्वभाव आदतों से बनता है। आदतों को बनाए बिना स्वभाव नहीं बनता और पूरे समाज का स्वभाव बनना है तो पूरे समाज का प्रत्येक व्यक्ति विचार करके नहीं चलता। अध्ययन करके नहीं चलता। समाज तो जो वातावरण बनेगा, उस वातावरण के अनुसार चलता है। वातावरण बनाने वाले लोग चाहिए। तात्विक चर्चा, सामान्य समाज नहीं करता, उसको उसमें रस नहीं है, उसमें गति भी नहीं है। और तत्व की चर्चा करने जाएंगे तो विषयों को लेकर अनेक प्रकार के मत होते हैं विद्वानों के, जो कि पहले से है। प्रत्येक ऋषि अलग-अलग बात बताता है। कभी एक ही बात अलग भाषा में बताता है तो अनुयायी लोग उसको अलग ही मानकर चलते हैं। किसका प्रमाण मानें? श्रुति-स्मृति सबमें फर्क है। श्रुतिर्विभिन्नाः श्रुतयस्यभिन्नाः नय एको मुनिर् यस्य वच् प्रमाणम्. धर्मस्म तत्वम्। समाज को जोड़ने वाला यह जो धर्म है, समाज को बिखरने न देने वाला यह जो धर्म है, समाज को उन्नत करके अभ्युदयऔर निःश्रेयस की प्राप्ति करा देने वाला, समाज के व्यवहार को संतुलित करने वाला यह जो धर्म है, धर्मस्य तत्वं निहितं द्ववायः, उसका तत्व गुप्त रहता है, उसको पाने के लिए तपस्या करनी पड़ती है। सब लोग तपस्या नहीं करते। सब लोग क्या करते हैं, महाजनो येन गतः स पंथाः। समाज के श्रेष्ठ लोग जैसे चलते हैं, वैसे चलते हैं. यद्यदः चरति श्रेष्ठः तत्देवे तरोजनाः, स यतप्रमाणम् कुरुते लोकस्तदुनवर्तते। अपने इस विशाल भूमि वाले, विशाल जनसंख्या वाले देश में प्रत्येक गांव में, प्रत्येक शहर के गली मौहल्ले में अपने आचरण से समाज हितैषी आचरण का वातावरण बनाने वाले कार्यकर्ताओं का समूह चाहिए। संघ का यही प्रयास है।
विचार कुछ भी हो, देश के सामने जो विभिन्न विषय हैं, समस्याएं हैं उनके हल के बारे में मत कुछ भी हो, विचारधारा कोई भी हो, जाति-पाति, प्रांत, पंथ, पक्ष, भाषा कोई भी हो, लेकिन सम्पूर्ण समाज को, सम्पूर्ण राष्ट्र को अपना मानते हुए व्यापक दृष्टि से उसके हित के प्रकाश में मेरा व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक और आजीविका में आचरण कैसा हो, इसका विचार करके अपने आचरण का उदाहरण अपने आसपास प्रस्तुत करने वाला व्यक्ति वो वातावरण बनाता है। वह महापुरुष नहीं होता, वह सब में एक होता है। महापुरुषों के आदर्शों की समाज पूजा करता है, उत्सव करता है, जयंति, पुण्यतिथि मनाता है। लेकिन अनुकरण तो उसका करता है जो उसके आसपास पड़ोस में रहने वाला, उसके जैसा लेकिन थोड़ा सा प्रमुख। ऐसे उदाहरण अपने जीवन से उपस्थित करने वाले कार्यकर्ता चाहिए। आदर्श हमारे पास भरपूर हैं, कमी नहीं है। सुविचार की कमी नहीं है, श्रेष्ठतम तत्वज्ञान हमारे पास है। परन्तु व्यवहार के बारे में हमनिकृष्ट थे, अब हम कैसे कह सकते हैं कि थोड़ा सा सुधार हुआ है। लेकिन अभी तक जितनी मात्रा में व्यवहार चाहिए, वैसा नहीं है। और वो तब बनता है जब सब प्रकार की परिस्थिति में उस व्यवहार पर अड़कर वैसा व्यवहार करने वाले समाज में से ही समाज के जैसे ही, परन्तु अपने चारित्र्य से, शील से विशिष्टता रखने वाले लोग खड़े होते हैं। ऐसे लोग देशभर में खड़े करने का प्रयास राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का है। क्योंकि सारे समाज को एक विशिष्ट दृष्टि से चलने की आवश्यकता है।